प्यार और ज़िंदगी
अध्याय 1: दिल्ली की एक सुबह
सुबह की वो हल्की-सी
धूप लवण्या मेहता के कमरे में घुस आई थी—जैसे चोरी-छुपे कोई अपनी मौजूदगी का एहसास दिला दे। दिल्ली की लाजपत नगर वाली खिड़की
के पर्दे भी, बस, हल्के से लहराए गरम
हवा के झोंके से। उधर किचन से इलायची वाली चाय की खुशबू, टोस्ट
के साथ मिलकर, पूरे कमरे में जादू फैला रही थी।
लवण्या उठी, अंगड़ाई
ली, और खिड़की से बाहर झाँकते हुए एक लंबी मुस्कान दे मारी।
दिल्ली की भागती-दौड़ती सुबह को वो रोज़ ऐसे ही देखती थी,
जैसे कोई पुराना दोस्त हो। लवण्या बीस की ही तो थी, लेकिन हौसले और जोश में किसी से कम नहीं। उसमें वो कशिश थी, जो चाहो न चाहो, खींच ही लेती थी। हँसी, ज़बरदस्त। राय, साफ़, दो टूक।
कॉन्फिडेंस पूछो मत। कॉलेज, यार-दोस्त, और शाम का गिटार—बस, यही थी उसकी दुनिया।
कुछ गलिय़ों के फासले पर, एकदम
शांत माहौल वाला घर, आदित्य शर्मा का,
पूरा पारंपरिक घर था। आदित्य बाईस साल का था, और ब्राह्मण
फैमिली के नियम-कायदे जैसे उसकी रगों में बहते हों। दिन की
शुरुआत, संस्कृत के मंत्र, फिर शुद्ध
शाकाहारी नाश्ता, और कॉलेज की वही रोज़ की ट्रिप।
आदित्य थोड़ा शांत, थोड़ा
शर्मीला—मगर उसकी चुप्पी डर से नहीं, सोच
से थी। बंदा सुनता बहुत था, छोटी सी बात भी पकड़ लेता। और
दिल? जैसे जज़्बातों की पूरी कविता छुपा रखी हो उसने।
लवण्या और आदित्य
दोनों पढ़ते थे साउथ दिल्ली के एक ही कॉलेज में। लवण्या जहाँ बवाल मचा देती—दोस्तों के बीच, या मंच पर अपनी राय ठोक देती—वहीं आदित्य हमेशा पीछे की बेंच पर, चुपचाप नोट्स बनाता
रहता। अगर कॉलेज का ग्रीन क्लब अपना एनुअल एनवायरनमेंट ड्राइव न करता, तो शायद ये दोनों कभी टकराते भी नहीं।
लवण्या ने तो वैसे ही नाम लिखवा दिया था—बस
एक बोरिंग लेक्चर से बचने के चक्कर में। आदित्य पहले से ही क्लब का बंदा था,
पौधों की देख-रेख और बाकी सबका हिसाब-किताब उसी के पास।
दूसरे दिन जब लवण्या जल्दी में मुड़ी, आदित्य
से टकरा गई, आदित्य पौधों की ट्रे लिए खड़ा था।
“ओ माय गॉड, सॉरी!”—उसने झट से बोला, पौधे ज़मीन पर गिर गए।
आदित्य हल्का घबरा गया, पर
फिर भी कूल रहा। “कोई बात नहीं,” बोला,
घुटनों के बल बैठते हुए। “ठीक हैं ये, बस ज़रा मिट्टी लग गई है।”
लवण्या भी वहीं बैठ गई, पत्तियों
से मिट्टी झाड़ते हुए—“मैं लवण्या,” मुस्कुराई।
आदित्य ने थोड़ा रुककर बोला, “आदित्य।
देखा है तुम्हें, इधर-उधर।”
बस, वही छोटी-सी मुलाक़ात, दोनों के बीच कुछ छोड़ गई। आदित्य ने
बताया वह लाजपत नगर मे रहता है। लवण्या ने कहा हम दोनो एक ही मोहल्ले में रहते हैं,
एक ही कॉलेज में पढते हैं,फिर भी हमारी
मुलाकात आज तक नही हुई, खेर, अब आगे से
ऐसा नही होगा।
फिर क्या, अगले कुछ दिन लवण्या
अकसर आदित्य के पास जाकर बैठ जाती। कभी उसके सीरियस चेहरे पर मज़ाक उछाल देती,
कभी उसके शांत स्वभाव की तारीफ कर देती। आदित्य, जो खुद को बड़ा कंट्रोल्ड समझता था, अब उन्हीं घंटों
का बेसब्री से इंतजार करने लगा, जब दोनों साथ पौधे लगाते,
बातें करते।
सेमेस्टर एंड आते-आते
दोस्ती पक्की हो गई। लवण्या कैन्टीन से दूर से ही हाथ हिला देती, आदित्य उसके लिए क्लास में सीट घेर लेता।
एक दिन, बारिश हो रही थी,
दोनों लाइब्रेरी से लौट रहे थे, एक ही नीली
छतरी तले। हवा कभी छतरी उड़ा दे, कभी खुद को।
“तुमसे ये छतरी संभलती ही नहीं,” लवण्या हँसी रोकते हुए बोली।
“पहली बार किसी लडकी के साथ छतरी बाँ3ट रहा हूँ,”
आदित्य ने बिल्कुल सच-सच कह दिया, और लवण्या हँसी में लोटपोट।
कुछ देर बाद,
दोनो लवण्या के घर के बाहर थे। लवण्या ने हौले से अपने गीले बाल कान के पीछे कर
दिए।
लवण्या ने हल्की आवाज़ में आदित्य का
हाथ पकडते हुए कहा, “हाथ ठंडा है तुम्हारा।”
“सर्दियों की सुबहें,” आदित्य
फुसफुसाया, “ऐसी ही होती हैं।”
उस पल… कुछ हुआ भी, कुछ नहीं भी लेकिन आदित्य का बहुत कुछ बदल गया।
अध्याय 2: प्यार और विदाई
आदित्य के लिए लवण्या सिर्फ “दोस्त”
नहीं रही उसे तो जबरदस्त वाला
वाला क्रश था हर वक्त वही याद, उसकी हँसी, उसका चेहरा…।
क्लास में? छुप-छुप के निहारना, उसके चेहरे के एक्सप्रेशन्स को डिकोड
करने की कोशिश। जब लवण्या अपने पेन को घुमाते हुए सोच में खो जाती, आदित्य की नजरें बस वहीं अटक जाती थीं…
लवण्या को आदित्य के इस व्यवहार की तो भनक
तक नहीं थी। उसके लिए आदित्य तो उसका ‘बेस्ट फ्रेंड’ था। भरोसे वाला,
ईमानदार, वो जिसके सामने अपने सारे सीक्रेट्स खोल
दो—डर, सपने, बोरिंग
किस्से—क्योंकि आदित्य सिर्फ सुनता नहीं था, समझता था भी।
मगर प्यार उस बारे में लवण्या ने कभी सोचा
ही नहीं। और सच कहूं, उसका अपना माहौल ही अलग था। घर में नानवेज,
चिकन करी और वाइन ये सब आम बात थी, खुला माहौल।
उधर आदित्य के घर में भोर की आरती, अगरबत्ती, पूजा। एक पारम्परिक और वेजिटेरियन फैमिली दोनो फैमिली मे सीधा कल्चर क्लैश!
अब बेचारा आदित्य दिल को कंट्रोल करता भी
तो कैसे?
सेमेस्टर का लास्ट डे था, कॉलेज में दीवाली की
पार्टी थी, हर पेड़ पर
लाइट्स, मिठाइयों की खुशबू, बच्चों की तरह
डांस करते स्टूडेंट्स, रास्ते पर दीये, पूरा कैंपस गोल्डन स्नैपचैट फिल्टर जैसा।
इसी भीड़ में आदित्य ने देखा—लवण्या
फव्वारे के पास थी। आदित्य का दिल—धक-धक
करने लगा! उसने सोच लिया, “आज अभी या कभी
नहीं।”
पसीने से भीगी हथेलियाँ, दिल
में अरमान लिए, पहुँच गया उसके पास।
लवण्या ने हँस कर पूछा, “अरे,
आज रंगीन कुर्ता? Impression मारना है क्या?”
आदित्य थोड़ा मुस्कुराया, बोला,
“तुम तो आज कमाल लग रही हो।”
लवण्या ने हल्का सा शरमा कर “थैंक्यू”
कहा।
आदित्य ने धीरे से कहा, “लवण्या,
मैं कुछ कहूँ?”
लवण्या थोड़ा झुकी, सुनने
लगी।
“मैं… मतलब कहाँ से शुरु करू,
समझ नहीं आरहा, तुम जिस कमरे में आ जाओ, सब रौशन हो जाता है। तुम
जिस गली मे जाओ महक जाती है. मुझे तुम चारो ओर नज़र आती हो, मुझे लगता है
मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ।”
लवण्या आदित्य की बाते ध्यान लगा कर सुन
रही थी! उसका चेहरे पर ना गुस्सा, ना शर्म, बस हल्की सी उदासी
थी।
“आदित्य… तुम्हारी बहुत परवाह है
मुझे,” लवण्या बोली। “लेकिन मैंने कभी तुम्हे
उस नज़र से नहीं देखा। और… सच कहूं, ये
सिर्फ इतना ही नहीं है। हम दोनों बहुत अलग हैं। हमारी फैमिली अलग है, मेरे घर में मांसाहार, शराब, सब
खुले में होता है। तुम्हारे यहाँ पूजा, रिवाज… मैं शायद उसमें फिट नहीं बैठती। तुम सुकून हो, मैं तूफान।”
आदित्य ने फिक्की सी मुस्कान फेंकी। लवण्या
ने उसके कंधे पर हाथ रखा, बोली, “हम बहुत अच्छे दोस्त हैं।
मैं नहीं चाहती ये बदले। इसलिए सच बोल रही हूँ।”
दीये की रौशनी अब फीकी पड़ने लगी थी।
आदित्य ने सिर झुकाया, बोला,
“समझ गया,” और चुपचाप चला गया।
उस रात, आतिशबाज़ियाँ आसमान फाड़
रही थीं, और आदित्य अपने कमरे की छत पर तारा गिन रहा था। बाहर
की रौशनी जितनी तेज़, अंदर उतना ही अंधेरा। उधर लवण्या भी बालकनी
में बैठी, घुटनों को बाँधकर सोच रही थी—ना तो कह दिया, मगर दिल भारी क्यों है?
अध्याय 3: मुंबई में एक नई शुरुआत
मुंबई सेंट्रल पर ट्रेन ने जैसे ही
आख़िरी साँस ली, लावण्या प्लेटफ़ॉर्म पर उतरी! हाथ में सूटकेस, दिल में अरमान और सपने लिए हुए।
चारों तरफ़ वही पुरानी मुंबई लोकल ट्रेनें
अपनी आदत से मजबूर, पटरियों पर धड़धड़ाती हुई. पूरे माहौल मे, शोर-शराबा, तेज भागती हुई ज़िंदगी, लेकिन पता नहीं क्यों, ये
सब उसे ज़िंदा सा लगता था.
कॉलेज की डिग्री जेब में आई नहीं थी कि
मुंबई से नौकरी का ऑफर आ गया. मीडिया कंपनी, बड़ा नाम,
बड़ी ज़िम्मेदारी. दिल्ली की जानी-पहचानी गलियों से दूर, पुरानी यादों और आदित्य को
पीछे छोड़ते हुए, लावण्या ने बिना ज़्यादा सोचे हाँ कर दी.
दिल में डर था, मगर उससे बड़ा जोश।
ऑफिस में उसकी नई जॉब—मार्केटिंग
एग्जीक्यूटिव—माने हर वक़्त दौड़-भाग,
क्रिएटिविटी और डेडलाइन. देर रात की एडिटिंग,
कॉफी का ओवरडोज़, और मीटिंग्स में आइडियाज की
बौछार. लावण्या को ये सब सूट करता था. नए
कैंपेन में कूद पड़ती, प्रेजेंटेशन में जान डाल देती,
और उसकी निडर सोच के चर्चे पूरे ऑफिस में होने लगे.
इन्हीं मीटिंग्स में वेभव राव से पाला
पड़ा—क्रिएटिव हेड. लंबा, पतला,
और चेहरे पर हर वक्त मुस्कराहट लिए हुआ था। वेभव, हैंडसम होने से ज़्यादा स्मार्ट,
मज़ाकिया, और सामने वाले को पूरा ध्यान देने
वाला शख्स था।
शुरू-शुरू में सब प्रोफेशनल
था. प्रोजेक्ट्स, ईमेल्स, और कभी-कभी कॉफी ब्रेक. फिर,
ना जाने कब, ये सब बदल गया—देर रात की चैटिंग, हँसी के ठहाके, और डिनर डेट्स. लावण्या की आत्मनिर्भरता और बेबाकी
वेभव को बड़ी पसंद थी. “तुम कमरे में आते ही पूरा माहौल बदल
देती हो,” उसने कभी सीरियस होकर बोला था. लावण्या हँसी तो छुपा गई, लेकिन गाल लाल हो गए.
वीकेंड्स पर दोनों मरीन ड्राइव पर घूमते. कभी
बचपन की बकवास, कभी बॉलीवुड गॉसिप, कभी
सपनों की बातें करते । ये सब चलता रहा काफी वक्त तक एक शाम, समंदर
की लहरें और दूर की रौशनी के बीच, वेभव ने अचानक रुककर कहा—
“मैं किस्मत को सीरियसली नहीं लेता था, जब तक तुमसे नहीं मिला.”
लावण्या थोड़ी सन्न सी हो गई।
“जल्दबाज़ी नहीं करूँगा, पर
अगर तुम्हें भी लगता है, तो मैं ज़िंदगी तुम्हारे साथ बिताना
चाहता हूँ.” वेभव ने आगे कहा।
लावण्या की आँखें भर आईं. पहली
बार दिल्ली छोड़ने के बाद, सच में हल्का-सा महसूस हुआ. जैसे कोई भारी पत्थर उतर गया हो.
“मुझे भी यही चाहिए,” उसने
धीरे से कहा.
दोनो के परिवार मान गए और शादी, सिंपल—झील
किनारे, बस अपने लोग, हल्का म्यूजिक,
और ढेर सारी हँसी. लावण्या ने हल्का गुलाबी
लहंगा पहना, वेभव की नज़रें हट ही नहीं रही थीं. मंडप में परी लाइट्स, वचन लेते हुए हवा जैसे पुराने
दर्द उड़ा रही थी.
साल बीता भी नहीं था कि उनके यहाँ बेटा
हुआ। नाम रखा “विनय,”। वेभव ने प्यार से गोद
में उठाते हुए कहा, “ये तुम्हारी तरह बहादुर बनेगा.”
लावण्या ने मुस्कराकर कहा—“या
शायद तुम्हारी तरह, शांत और भरोसेमंद.”
अब अपार्टमेंट में हर कोना खुशियों से
गूंजता था.
लोरी, नींद उड़ा देने वाली रातें, बच्चे की खिलखिलाहट, और सुबह की ममता. हर चीज़ में मेहनत, हर पल में प्यार.
और तभी… मुंबई में फिर मानसून आ गया।
अध्याय 4: बिछड़ाव और मातृत्व
मुंबई का मानसून, क्या है ऊपर
से नीचे तक बादल ही बादल, बिजली की ऐसी धमक कि दिल भी धड़क जाए,
और बारिश, मतलब इतनी कि छतें भी सोचें,
“बस कर यार!” लोग इस मौसम को कोसते रहते,
जैसे बस मुसीबत ही मुसीबत। लेकिन लावण्या? उसे
तो बारिश से इश्क था। हर बूँद में उसे शायरी दिखती थी, और ये
पूरी भीड़-भाड़, गड़गड़ाहट… इसमें भी उसे सुकून मिलता था। कुछ लोग ऐसे ही होते हैं।
उस दिन सुबह, वो बालकनी में थी—हाथ में चाय,
नजरें अपने छोटे से विनय पर, जो पालने में सो रहा
था। बारिश की आवाज़ में जैसे उसके दिल को कोई लोरी मिल गई हो।
उधर शहर के दूसरी छोर पर, वेभव अपना क्लाइंट मीटिंग निपटाकर घर लौट रहा था। फोन
घुमा दिया—“डिनर मत रोको, ट्रैफिक में अटका
पड़ा हूँ।”
लावण्या हँस पड़ी—“धीरे आना, मैं और विनय रज़ाई गर्म रखेंगे।”
Post a Comment